Somesh Kumar's profile

Dilli Jo Ek Sheher Tha

Dilli Jo Ek Sheher Tha
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'Dilli Jo Ek Sheher Tha', a book written by Rajendra Laal Handa is about Delhi around the time of Partition. The original book written in Urdu has been translated in Hindi by Shubham Mishr, and published with the aid of SGT University. The author has shown vignettes of Delhi through his personal experiences, and brings us a side of Delhi that is difficult to replace from its current form. This presented a wonderful opportunity to weigh in the history with the personal anecdotes that ranged from grocery lists to visits of the Laal Kila on the very first Independence Day.  

Medium: Isographs on paper
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तीन साल दिल्ली में काफ़ी आराम से गुज़रे। यूरोप और मध्य-पूर्व के रेगिस्तान में लड़ाई जारी थी। दिल्ली लड़ाई की ख़बरों को बड़े धीरज और इत्मीनान के साथ सुन और पढ़ रही थी। कई कारणों से दिल्ली के लोग इस जंग के नतीजे के बारे में कुछ ज़्यादा चिंतित नज़र नहीं आते थे। मुझे याद है अप्रैल सन्‌ १९४० की बात है कि एक दिन मैं शाम को कुछ दोस्तों के साथ कनॉट प्लेस में मटरगश्ती कर रहा था। अचानक एक अख़बार बेचने वाला चिल्लाया, “आज की ताज़ा ख़बर! हिटलर पेरिस पहुँच गया। सारे फ़्राँस पर नाज़ियों का क़ब्ज़ा।” ख़बर सुनी, एक पल के लिए माथे पर बल पड़े और फिर सुनी अनसुनी कर के सब लोग अपने-अपने कामों में लग गये।

गेहूँ और कोयला - एक दाम
पंद्रह दिन से हमारा धोबी नहीं आया था। लगभग दो सौ कपड़े धुलाई के लिए गये हुए थे। मेरे पास पहनने को एक कपड़ा भी नहीं रह गया था। २१ अगस्त के दिन, मैं धोबी की तलाश में चूना मंडी, पहाड़गंज पहुँचा। थोड़ी बहुत पूछताछ के बाद उसके घर का पता चल गया। दरवाज़े पर पहुँचने ही मैंने मसीते को आवाज़ दी। कुछ देर बाद एक बुढ़िया बाहर आयी। जैसे ही मैंने मसीते के बारे में पूछा तो वह आँखें पोंछने लगी। फिर कुछ सम्भल कर रुंधे हुए गले से बोली, “मसीते को मरे हुए तो आज एक हफ़्ते से ज़्यादा हो गया है। साथ में रमज़ान भी था, वह भी गया। और तो और ज़ालिमों ने उस बैल को भी नहीं छोड़ा जिस पर कपड़े लदे थे।

अगस्त १९४२
सबसे भयानक दंगा सात सितंबर को नयी दिल्ली में हुआ। सरकार की चहेती और बाबू लोगों की बस्ती अपनी नज़ाकत के लिए मशहूर थी, जहाँ पहले कभी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ था। और तो और यहाँ कभी कर्फ़्यू तक की आँच नहीं पहुँची थी। लेकिन आठ सितंबर को जो तूफ़ान उठा, उसने कनॉट प्लेस, गोल मार्केट, बाबर रोड, लोधी रोड को अपनी लपेट में ले लिया। दर्जनों दुकानें और घर दिन-दहाड़े लूट लिये गये। मारपीट की तरफ दंगाइयों की उतनी तवज्जो नहीं थी, जितनी लूट-खसोट की तरफ़। इस हादसे का पता लगते ही पंडित नेहरू ख़ुद कनॉट प्लेस पहुँचे और हाथ में बेंत लिए दंगाइयों का पीछा करने लगे।

दो घंटों में फ़साद पर क़ाबू पा लिया गया। मगर बहुत सी दुकानें लुट चुकी थीं। जूते, घड़ियाँ तरह-तरह के संदूक़ और दूसरी क़ीमती चीज़ों के ढेर दुकानों के आगे लगे थे। जो जिसके हाथ लगा, उठा ले भागा। फ़ौजियों को दो बार गोली चलानी पड़ी, जिससे क़रीब दस आदमी मारे गये।

क़यामत का मंज़र
दिल्ली के पुराने दुकानदारों ने हिम्मत और उदारता से काम लिया। सब दुकानों के सामने रेढ़ियों की क़तारें लगी थीं। इन क़तारों को तोड़कर शायद ही कोई ग्राहक पुरानी दुकानों पर सामान ख़रीदने जाता होगा। असल में चांदनी चौक, कनॉट प्लेस, नयी सड़क, सदर बाज़ार और खारी बावली वग़ैरह जैसे पुराने बाज़ारों को शरणार्थियों की नयी दुकानों की वजह से जैसे ग्रहण सा लग गया था। इन चलती-फिरती दुकानों की क़तार के पीछे पुरानी दुकानों की तरफ ग्राहकों का ध्यान नहीं जाता था। चांदनी चौक में अस्थायी दुकानों और रेढ़ीवालों की क़तारें इस तरह लगी थीं जैसे ख़ोमचेवाले की मिठाई पर मिट्टी की तह जमी होती है।

राजधानी में शरणार्थी
मगर यह तो पुरानी बातें हैं। देश के बँटवारे के असर इन यादगारों पर उनके विस्तार के अनुपात से ही पड़े हैं। जब लाखों शरणार्थी दिल्ली में आ घुसे तो नये पुराने का फ़र्क़ ख़त्म हो गया। मकानों की कमी ने ऐतिहासिक इमारतों को ही मकानों का रूप दे दिया। एक विचार से यह ठीक ही हुआ। ऐतिहसिक इमारतों और शरणार्थियों में गहरा रिश्ता है। लाल क़िले और क़ुत्ब जैसी यादगारें अगर तारीख़ की यादगारों को ज़िंदा रखती हैं तो शरणार्थी ख़ुद इतिहास रचने वाले लोग हैं। जो काम ताक़तवर बादशाहों ने इन विशाल धरोहरों के ज़रिए अपनी मर्ज़ी और ख़्वाहिश से किया, वही काम ये ग़रीब और बेसहारा शरणार्थियों अपनी मर्जी के ख़िलाफ़ अपने घरों को छोड़कर और इन धरोहरों को आबाद करके कर रहे हैं।

ऐतिहासिक इमारतें या शरणार्थीघर
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